Monday, January 03, 2011

Shikwaa - The regret

के अश्क भर ही आते तो आँखों को क्या गिला था?
एक नमी की परत के इलावा सपनों के नाम पे यहाँ बचा ही क्या है?
के इश्क चढ़ ही जाता तो रातों को क्या गिला था?
एक कमी की शर्त के इलावा अपनों के नाम पे यहाँ बचा ही क्या है?


क़दम मेरे भी वक़्त के साथ जुड़े हैं, बेडी है या बंधन? कटती ही नहीं


सुइयां चलती, दौड़ती हैं और खिचते गिरते मेरे दिन भी चले जाते हैं

गिरफ्त है कोई अनदेखी जो अपने दायरे में मुझे बार हां खड़ा कर देती है
झाइयां लिए मेरी ज़िन्दगी के चेहरे पे लकीरें लिखते पढ़ते, पल छिन भी चले जाते हैं

सरगोशी जो होती तो सन्नाटा टूट जाता
जज्बातों पे जो जाले पड़े हैं, शायद उन्ही में उलझ बैठे हैं कायनात के सुर

 काश खलिश देके मैं हलचल ले पाता
कशमकश लौटा के बस एक रात सो जाता

के अश्क भर ही आते तो आँखों को क्या गिला था?
एक नमी की परत के इलावा सपनों के नाम पे यहाँ बचा ही क्या है?

क्या खबर इस देह के ढ़हते ढलते शहर के आगे कोई मुकाम शायद क़ैद से आज़ाद करे
कौन जाने यह हद्दें मुझे चुभ रही हैं के इन्हें तोड़ दूं, एक शुरुआत करून

के मर्ज़ बढ़ जाता तो घातों को मिटाने का हौसला ढूंढ ही लेता
एक थमी सी नज़्म के इलावा हर शाम मैंने सुना ही क्या है?
उम्मीद काफुर मैं काफिर ही ही सही
दुआ को हाथ उठ जाते तो क्या सिला था?


1 comment:

Vicky said...

Kam hoti nahin ye haraarat,
maatha sehlaaye toh koi....
thamti nahin rooh talak siharan
aaghosh mein bhar laaye toh koi....


A pain that longs to be tended to...man, your words shook me from within, and I haven't stopped quivering

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