Sunday, September 30, 2007

ऐसा क्यों होता है

हर अनजानी दस्तक कुछ पहचानी सी लगती है
हर बात एक याद, हर मुलाक़ात कहानी सी लगती है
भूले से नाम, भूले से गम हैं
किसी भूले से दर्द से आँखें नम हैं
राहत नहीं किसी भी पनाह में
कुछ फ़र्क नहीं फर्ज या गुनाह में
दीनों के बोझ से बोझील कदम
और बेगानी डगर पे हमसफ़र हम
कभी तुम बद गए आगे
कहीं पीछे मुद ना सके हम
अधूरी दास्तानें मील जाती हैं अक्सर
बेखुद सी मुस्कानें खिल जाती हैं लैब पर

बस एक कशीश बस एक ख्लिश
एक कशमकश का आलम हैं
रास्ते कई हैं बदने को
साथ चलाने के लीये नज़र में हमनवा कम हैं

सवाल लीये फीर हर छूते दर का रुख करना चाहता है डील
खबर नहीं इससे जाने क्या होगा इस जीद से हासील

चेहरों की भीड़ है फीर भी जाने कीसकी तलाश है
शायद बीते लम्हों की वापसी चाहता हूँ या वक्त के पलट के आने की आस है

कुछ देर बस दम भर लूं
मन्ज़िल से नज़र हताके हर रास्ते का, हर हमनवा का शुक्रिया अदा कर लूं
सफ़र नहीं रुक सकता के कारवां आगे बढाना है
आनेवाले कल में ही गुज़रा ज़माना लॉट के आना है

यही चंद साँसे उधार की हैं
यही कुछ लम्हे उनके इंतज़ार की हैं
बस शाम ढलने को है
ख़्वाब मील्ने को हैं

ज़िंन्दगी का यही दस्तूर है
हर दील को मुकाम पाने के लिये ख़्वाब देखते रहना ज़रूर है

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