Thursday, October 04, 2007

एक और कारवां


साँसों के कारवाँ कुछ देर पहले गुज़र गए

साथ चल देता मैं भी लेकीन लम्हें आगे बढ़ गए

रफ़्तार वक़्त की थमती कभी है नहीं

तनहाइयों में भी हमें हुम्साये दीखते हर कहीँ

कुछ रवानगी कीस्मत की है और शायद मुकाद्दर है मेहरबान

दीदार यार का ही है देखता हूँ मैं जहाँ

1 comment:

diksha said...

you have taken your poetry to another level...
you donot justify your words any more...
you are a true aspiring sufi...
this is your aalam...
beautiful...

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